-एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.)

हाल में सोनभद्र जिले के उभी गाँव में ज़मीन के कब्जे को लेकर हुए नरसंहार से, जिसमे 10 लोग मर चुके हैं तथा तिन दर्जन के करीब घायल हैं, भूमि का सवाल फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है. इससे एक बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आई है कि इस क्षेत्र में किस तरह अधिकारियों, राजनेताओं और दबंग लोगों ने आदिवासियों, ग्राम समाज तथा जंगल की ज़मीन को हथिया रखा है. इस प्रकार की स्थिति पूर्वांचल के सोनभद्र, मिर्ज़ापुर और चंदौली जिले की चकिया और नौगढ़ तहसील में व्याप्त है. इन जिलों में वन में रहने वाले आदिवासियों और उस पर आश्रित लोगों (वनवासी) की काफी बड़ी जनसँख्या है.इन जिलों में जंगल तथा पहाड़ हैं और इसमें आदिवासी तथा वनवासी आबादी का बड़ा हिस्सा निवास करता है परन्तु उनमें से अधिकतर लोगों के पास ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है. जंगल तथा ग्राम समाज की ज़मीन ट्रस्ट तथा सहकारी समितियां बना कर हथिया ली गयी है. यहाँ पर गैर हाज़िर अधिकारियों, राजनेताओं तथा दबंग लोगों के बड़े बड़े फार्म हैं. भूमि पर सीलिंग एक्ट लागू होने पर भी इस क्षेत्र में ज़मींदारी व्यवस्था बरकरार है. इस क्षेत्र में ज़मीन तथा आदिवासियों/दलितों के शोषण के विरुद्ध नक्सलवाडी आन्दोलन काफी लम्बी अवधि तक चलता रहा है. अब भी अगर ज़मीन के प्रशन को शीघ्र हल नहीं किया गया तो इसके पुनः खड़े होने में बहुत देर नहीं लगेगी.

2011 की सामाजिक एवं आर्थिक जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की दलित आबादी के 42% तथा आदिवासी आबादी के 35% परिवार भूमिहीन मजदूर है. 1991 में उत्तर प्रदेश में 42.03% दलित भूमिधर थे जो 2001 में 30% रह गए थे और इसके बाद और कम हो गए हैं. उत्तर प्रदेश में बहुत कम दलितों के पास ज़मीन होने का एक कारण यह है कि यहाँ भी बिहार की तरह भूमि सुधारों को सही ढंग से लागू नहीं किया गया जिस कारण बहुत कम ज़मीन सीलिंग में चिन्हित हो सकी और जो चिन्हित भी हुयी थी उसका भूमिहीनों को सही आवंटन नहीं किया गया. भूमि का थोडा बहुत आवंटन इंदिरा गाँधी के समय 1976-77 में किया गया जिसमे दलितों को छोटे छोटे पट्टे दिए गये थे. इनमें से अभी भी बहुत से पट्टों पर दलितों का कब्ज़ा नही है. सत्ता में आने से पहले बसपा का एक नारा था-“जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है”. परन्तु चार बार मुख्य मंत्री बनने पर मायावती को इस नारे पर अमल करने की याद नहीं आई. परिणामस्वरूप पच्छिमी यूपी में तो 1995 थोडा बहुत भूमि आवंटन तो हुआ पर पूर्वांचल में वह भी नहीं. इसी लिए आज पूर्वांचल के जिलों खास करके मिर्ज़ापुर, सोनभद्र तथा चंदौली में अधिकतर दलितों के पास ज़मीन नहीं है जबकि आज भी हरेक गाँव में ग्राम समाज की ज़मीन मौजूद है परन्तु वह दबंगों के कब्जे में है. मायावती ने दबंगों से उक्त ज़मीन खाली कराकर भूमिहीनों को आवंटन नहीं किया क्योंकि इससे उसके सर्वजन वोटर के नाराज़ हो जाने का डर था.

उत्तर प्रदेश में जब 2002 में मुलायम सिंह यादव की सरकार आई तो उन्होंने राजस्व कानून में संशोधन करके दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को ही बदल दिया और उसे अन्य भूमिहीन वर्गों के साथ जोड़ दिया. उनकी सरकार में भूमि आवंटन तो हुआ परन्तु ज़मीन दलितों को न दे कर अन्य जातियों को दे दी गयी. इसके साथ ही उन्होंने कानून में संशोधन करके दलितों की ज़मीन को गैर दलितों द्वारा ख़रीदे जाने वाले प्रतिबंध को भी हटा दिया. उस समय तो यह कानूनी संशोधन टल गया था परन्तु बाद में इसे विधिवत कानून का रूप दे दिया है. इस प्रकार मायावती द्वारा दलितों को भूमि आवंटन न करने, मुलायम सिंह द्वारा कानून में दलितों की भूमि आवंटन की वरीयता को समाप्त करने के कारण उत्तर प्रदेश के दलितों को भूमि आवंटन नहीं हो सका और ग्रामीण क्षेत्र में उनकी स्थिति अति दयनीय बनी हुयी है.

आदिवासियों के सशक्तिकरण हेतु वनाधिकार कानून- 2006 तथा नियमावली 2008 में लागू हुयी थी. इस कानून के अंतर्गत सुरक्षित जंगल क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों तथा गैर आदिवासियों को उनके कब्ज़े की आवासीय तथा कृषि भूमि का पट्टा दिया जाना था. इस सम्बन्ध में आदिवासियों द्वारा अपने दावे प्रस्तुत किये जाने थे. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी परन्तु उसकी सरकार ने इस दिशा में कोई भी प्रभावी कार्रवाही नहीं की जिस का नतीजा यह हुआ कि 30.1.2012 को उत्तर प्रदेश में आदिवासियों द्वारा प्रस्तुत कुल 92,406 दावों में से 74,701 दावे अर्थात 81% दावे रद्द कर दिए गए और केवल 17,705 अर्थात केवल 19% दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1,39,777 एकड़ भूमि आवंटित की गयी.
मायावती सरकार की आदिवासियों को भूमि आवंटन में लापरवाही और दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता को देख कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की थी जिस पर उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2013 में राज्य सरकार को वनाधिकार कानून के अंतर्गत दावों को पुनः सुन कर तेज़ी से निस्तारित करने के आदेश दिए थे परन्तु उस पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. इस प्रकार मायावती तथा मुलायम सरकार की लापरवाही तथा दलित/आदिवासी विरोधी मानसिकता के कारण 80% दावे रद्द कर दिए गए. उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी दिखाया है की सरकारी स्तर पर कोई भी दावा लंबित नहीं है. इसी प्रकार दिनांक 30.04.2016 तक राष्ट्रीय स्तर पर कुल 44,23,464 दावों में से 38,57,379 दावों का निस्तारण किया गया जिन में केवल 17,44,274 दावे स्वीकार किये गए तथा कुल 1.03,58,376 एकड़ भूमि आवंटित की गयी जो कि प्रति दावा लगभग 5 एकड़ बैठती है. राष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत दावों की औसत 53.8 % है जब कि उत्तर प्त्देश में यह 80.15% है. इससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून को लागू करने में घोर लापरवाही बरती गयी है जिस के लिए मायावती तथा अखिलेश सरकार बराबर के ज़िम्मेदार हैं.

इसके बाद आरएसएस से जुडी कुछ संस्थाओं द्वारा दाखिल की गयी जनहित याचिका में फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया है जिसमें वनाधिकार के सभी रद्द हुए दावों वाली भूमि को 27 जुलाई तक खाली कराने का आदेश पारित किया गया था. इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के 74,000 परिवारों तथा पूरे देश में 20 लाख परिवारों पर पड़ने वाला है जिनकी बेदखली होने की सम्भावना है. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के विरुद्ध हमारी पार्टी से जुडी आदिवासी वनवासी महासभा ने कुछ अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर पिटीशन की थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई तक बेदखली पर रोक लगते हुए सभी दावों की पुनः सुनवाई करने की अनुमति दे दी थी परन्तु अभी तक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस दिश में कोई भी कार्रवाही की गयी प्रतीत नहीं होती है.

जैसा की सर्वविदित है कि मिर्जापुर, सोनभद्र और खासकर चंदौली के चकिया व नौगढ़ क्षेत्र भूमि प्रश्नों पर आंदोलन, हिंसा और दमन के इलाके रहे हैं. यहां पर बैराठ फार्म से लेकर ढेर सारी अन्य जगहों पर गैरकानूनी ढंग से जमीनों को हड़पा गया है और अधिकांश जमीनों से आदिवासी, वनवासी, खेत मजदूर या तो बेदखल किए गए या जमीनों को हासिल करने के लिए उन्हें जो कानूनी अधिकार मिले थे, उनको उन्हें उपलब्ध नहीं कराया गया। इस पूरे क्षेत्र में जमीन के सवाल को लेकर कई बार हिंसक झड़पें हुई हैं, ढेर सारे लोग मारे गए हैं।

इसलिए यह आवश्यक है कि उत्तर प्रदेश सरकार भूमि के प्रश्न पर महत्वपूर्ण निर्णय ले और भूमि के सवाल को जो विकास, रोजगार और सामाजिक न्याय दिलाने की कुंजी है, उसे वरीयता के आधार पर हल करे।
अतः उत्तर प्रदेश सरकार से अनुरोध है कि –

  1. उभा काण्ड की न्यायिक जांच करायी जाए और यह पता लगाया जाए कि एक प्रशासनिक अधिकारी द्वारा कैसे आदर्श कोपरेटिव सोसाइटी बनाकर ग्रामसभा की इतनी ज्यादा जमीन हड़प ली गयी और बाद में उसके परिजनों द्वारा उसकी बिक्री की गयी। खरीद बिक्री की इस पूरी प्रक्रिया में लिप्त प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही तय कर उन्हें दण्डित किया जाए. उभा गांव में कोपरेटिव सोसाइटी की जमीन को सरकार द्वारा अधिगृहित कर जो ग्रामीण उस पर काबिज है उन्हें पट्टा दिया जाए. उभा गांव में पीड़ित ग्रामीणों पर लगाए गुण्डा एक्ट के मुकदमें तत्काल वापस लिए जायें.

  2. प्रदेश सरकार जमीन के सवाल को हल करने के लिए भूमि आयोग का गठन करे। उक्त आयोग ट्रस्ट या अन्य माध्यमों से गांव सभा या लोगों से छीन ली गई या हड़प ली गई जमीनों को अधिगृहीत करे और ग्राम सभा की फाजिल जमीनों समेत इन जमीनों को गरीबों में वितरित करने के लिए काम करे. औद्योगिक विकास के नाम पर भी जो जमीनें किसानों से ली गई थीं उन जमीनों को किसानों को वापस कर देना विधि सम्मत होगा.

  3. प्रदेश में वनाधिकार कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए और इसके तहत प्रस्तुत दावों का विधिसम्मत निस्तारण किया जाए और जो आदिवासी व वनाश्रित पुश्तैनी रूप से वन भूमि पर रहते हैं और खेती किसानी करते है, उन्हें तत्काल उसका पट्टा दिया जाए और जब तक उनके दावों का विधिक निस्तारण नहीं हो जाता तब तक उन्हें बेदखल करने से रोके और वन विभाग उनके खेती-बाड़ी के अधिकार में हस्तक्षेप न करे.

  4. भूमि विवादों के तत्काल निस्तारण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार रेवन्यू फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन करे।
    उम्मीद की जाती है कि उत्तर प्रदेश में सोनभद्र गांव की हृदय विदारक घटना अन्य जिलों और गांव में न घटित हो, इसलिए उत्तर प्रदेश की सरकार इस दिशा में पहल करेगी और भूमि सुधार को लागू किया जाएगा। यह काम उच्च प्राथमिकता पर एक विशेष अभियान चला कर किया जाना लाभप्रद होगा.