हुसैन जैसा ज़माने में दूसरा न हुआ,

कटा के सर को नबूवत बचा लिया जिसने।

ऐसा मैं ने सुना है और सुना करता हूँ कि मुसलमान पहले एक थे, बाद में फ़िरर्क़ों में बंट कर बिखर गए। और यह इसलिए हुआ कि रसूल अकरम की हदीस है कि मेरी उमत 73 टुकड़ों में बट जाये गी जिसमे एक फ़िरक़ा जन्नती हो गा। मगर यह पूरी हदीस नही है, रसूलल्लाह ( स ) ने फ़रमाया था कि मूसा की उम्मत ( अनुयाई )71 फ़िरक़ों में बंटी और सब दीन से फिर गये, ईसा की उम्मत 72 फ़िरक़ों में बंटी और ईसा को छोड़ कर भटक गये, अनक़रीब मेरी उम्मत 73 फ़िरक़ों में बंट जाये गी जिस में एक फ़िरक़ा जन्नत में जाये गा, यह रसूल की हदीस है और सही है। बाद में वही हुआ भी। रोज़ रोज़ नये नये फ़िर्के बनते रहे , कुछ बच जाते हैं कुछ वक़्त के साथ मिट जाते हैं। हर कोई यही दावा करता हैं कि हमारा ही फ़िरक़ा जन्नत में जाये गा। सवाल यह नहीं है कि रसूल की हदीस है, वह तो है, सवाल यह है कि रसूल ने फ़रमाया क्यों? यह हदीस मुसलमानों को ख़ुश होने के लिए नहीं है बल्कि ख़ुद पर रोने के लिए है। रसूल को जो अंदेशा था उसे मुसलमानों ने कर के दिखा दिया।

रसूल के सामने जो मुसलमान थे उनमें भी 3 तरह के थे। महाजरीन जो हिजरत के बाद मक्का से मदीना आये, अंसार जो मदीना में रसूल के आने के बाद मुसलमान हुए और तोलक़ा जो फ़तह मक्का के दिन डर के मुस्लमान हुए। इन तीनों के मिज़ाज में बड़ा फ़र्क़ था, देखने में सभी मुसलमान थे मगर उनमें छिपे हुए कुछ मुनाफ़िक़ ( मुसलमान का भेस बना कर इस्लाम को नुक़सान पहुचाने वाले ) भी थे। कुछ को रसूल ने पहचनवाया भी और कुछ छिपे रहे। अल्लाह! जो नीयतों को जनता है उसनें रसूल की ज़बान से अपना यह पैग़ाम पहुँचाया ताकि लोग अपनी नीयत और अमल को संभाल ले और ख़ुद को जहन्नुम से बचा लें।
मगर हुआ क्या? इधर रसूल दुनियां से रुख़्सत हुए और मुसलमान रसूल की मैय्यत छोड़ कर ख़िलाफ़त के लिए झगड़ा करने लगे और तीन दिन बाद भी रसूल के जनाज़े में शिरकत न कर पाए, तारीख़ में रसूल के दफ़्न कफ़न में बनी हाशिम के लोगों को छोड़ कर ज़्यादा से ज़्यादा 13 मुसलमानों की शिरकत दर्ज है। तारीख़ पढ़ने वालों के लिए यह अज़ीम सानेहा है। जिस रसूल के लाखों मानने वाले हों उस सरदारे अम्बिया के जनाज़े में सिर्फ़ 13 लोग शरीक थे। रसूल ने कोई हुकूमत नहीं छोड़ी थी बल्कि रिसालत छोड़ी थी। उसूले इस्लाम छोड़ा था और इस्लामी रवायात छोड़ कर गए थे। फिर झगड़ा किस बात का था। लोग क्यों एक दूसरे से दूर होने लगे। क्यों अपनी बैठकों और चौपालों में ख़िचड़ियां पकाने लगे। ख़िलाफ़त तीसरे दौर से गुज़र कर जब चौथे दौर में आई तो रसूल के जानशीन हज़रत अली बने जिनको मुसलमान मुकर्रम कहते हैं। जिन्होंने ने कभी बुतों की पूजा नही की, हराम ग़िज़ा नहीं खाई, जो काबा में पैदा हुए और हर क़दम पर रसूल के साथ रह कर रसूल और रिसालत की हिफ़ाज़त करते रहे। जो रसूल की हर दफ़ाई जंग में फ़ातह रहे, जो रसूल के इल्म को आगे बढ़ाते रहे और उसमें नये गोशे तलाश कर दुनियां तक पहुंचाते रहे, मगर जब मौला अली ( अलैहिस्लाम ) को मुसलमानों ने अपना ख़लीफ़ा चुना तो मुसलामानों में एक हेजान पैदा हो गया। आखिर क्यों? यह एक ऐसा सवाल है जिस से मुसलमान आँखे चुरा लेता है। जंगे जमल, सिफ़्फ़ीन और नहरवान जैसी बड़ी जंगों में उलझा दिया दिया गया, यह वह जंगे थी जो मुसलमान मुसलमान के बीच हुई। सवाल है कि मुसलमान आपस में क्यों लड़ रहे थे। वह तो एक थे, उनका दीन और उसूल एक था तो फिर अमल में इतना फ़र्क़ क्यों आ गया।

ओलमाये इस्लाम ने जब उन जंगों के असबाब पर नज़र डाली तो उन्हेंने कहा कि अली हक़ पर थे, यह ओलमा का फ़ैसला नहीं था, इस बात पर रसूल की उस हदीस का हिसार था जो रसूल ने फ़रमाया था, ( अली हक़ के साथ और हक़ अली के साथ, अल्लाह हक़ को मोड़ देता है जिधर अली मुड़ते हैं )। गोया मुसलमान नाहक़ के लिए हक़ से लड़ रहे थे। जो हक़ से लड़े वह ईमान वाला हो ही नहीं सकता, गोया मुसलमान कम से कम दो फ़िरक़ों में बंट चूका था , एक हक़ वाला मुसलमान एक नाहक़ का पैरो मुसलमान। फिर तीसरा फ़िरक़ा बना जिसने हक़ और नाहक़ दोनों को नकार कर जंगो जदाल करने लगा इसे ख़वारिज का नाम दिया गया। आखिर यह सब हो क्यों रहा था। अल्लाह की वहदानियत ( एक होना ) रसूल की रिसालत, एक किताब क़ुरआन वाला, एक किबला ( काबा ) को मानने वाला आपस में दस्त गरीबां क्यों था? यह सवाल हर किसी के दिमाग़ में आये गा।

रसूल ने अरबों में रायज ग़लत ग़ैर इंसानी रवायात को तोड़ कर इस्लामी उसूलों को क़ायम किया था, जिसमे हर किसी के हुक़ूक़ महफूज़ थे, मौला अली ने मुसलमानों को उन्ही उसूलों पर लौटाने की कोशिश की तो वह लोग भड़क गए जो इस्लाम के नाम पर इस्लामी उसूलों की जगह अपनी मनमानी को इस्लाम का नाम दे रहे थे, सब कुछ बदल चुका था, कुछ ही लोग थे जो उन उसूलों के पाबंद थे जो रसूल ने अल्लाह के हुक्म से क़ायम किया था जिसका सबूत हमे तारीख़ के पन्नों से मिलता है। जब जंगे जमल के बाद बसरा की जामा मस्जिद में मौला अली ने नमाज़ पढाई तो लोग एक दूसरे को ख़ुश हो कर मुबारकबाद दे रहे थे, कि अली ने आज वैसे ही नमाज़ पढाई जैसे हम रसूल के पीछे पढ़ते थे, गोया फ़िरक़ा परस्तों ने नमाज़ को भी बदल डाला था। मौला अली ने इस्लाम को नहीं बदला था बल्कि अपने दौरे ख़िलाफ़त में इस्लाम की सही तस्वीर दिखा रहे थे और उसे मुसलमानों तक पहुंचा रहे थे, जो लोग दुनियां की लालच में अपने मन का इस्लाम चला रहे थे उन्हें ख़तरा हुआ तो 19 रमज़ान को कूफ़ा की मस्जिद में सुबह की नमाज़ के वक़्त सजदे में शहीद करवा दिया, मारने वाला अब्दुर्रहमान इब्ने मुल्ज़िम भी मुसलमान था, वह भी नमाज़ पढता था, वह भी दुरूद पढता था मगर जिसपर दुरूद पढता था उन्हीं को मार दिया, गोया वह उस फ़िर्के से ताल्लुक रखता था जो देखने में मुसलमान था पर था नहीं।

इसी फ़िरक़ा परस्ती और दीन के नाम पर दीन को मिटाने वालों ने यज़ीद इब्ने मुआविया को अपना ख़लीफ़ा चुन लिया। यज़ीद को इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं था ,वह बाप की छोड़ी हुई हुकूमत पर क़ाबिज़ था, मगर उसकी ग़ैर इस्लामी हरकतों को इस्लाम बनाने के लिए किसी ऐसे की ज़रुरत थी जो उसको जायज़ ठहरा दे। उस वक़्त सिर्फ़ इमाम हुसैन ही थे जो यह काम कर सकते थे तो उसने इमाम हुसैन पर दबाव बनाया। यज़ीद कहता था कि कोई क़ुरआन नहीं आया हुसैन न सिर्फ़ क़ुरआन के मुहाफ़िज़ थे बल्कि ख़ुद बोलते क़ुरआन थे, यज़ीद कहता था कोई नबी नहीं आया, हुसैन आगोशे पैग़म्बर में पले थे, यज़ीद कहता था कि कोई फ़रिश्ता नहीं आया, फ़रिश्तों का हुसैन के घर रोज़ आना जाना था, वह हुसैन के नाना के पास वही लाते थे, उनका झूला झुलाते थे, उनकी माँ की चक्कियां चलाते थे। यज़ीद इस्लाम को मिटा कर अपने बुज़ुर्गों की ग़ैर इंसानी हरकतों को इस्लाम के नाम पर रायज करना चाहता था तो हुसैन अपने नाना के इस्लाम और रिसालत को ताकायमत बचाने वाले थे। इस तरह दो फ़िर्के आमने सामने थे, एक इस्लाम के नाम पर इस्लाम को मिटा कर दहशतगर्दी को क़ायम करने वाला और एक इस्लाम को बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने वाला। और यही कर्बला के तपते हुए मैदान में आमने सामने थे।

बेशक इमाम हुसैन ने तीन दिन की भूख और प्यास में जो क़ुरबानी दी उसने इस्लाम को ज़िन्दगी बख़्श दी और यज़ीद ने इस्लाम के नाम पर दहशतगर्दी की बुनियाद डाल दी। आज जो मुसलमानों में दहशतगर्द दिखाई दे रहे हैं वह उसी यज़ीद के मानने वाले हैं क्योंकि यज़ीद दुनियां का सबसे बड़ा दहशतगर्द था। यह यज़ीदी हैं, न कि अल्लाह और रसूल को मानने वाले।

आज मोहर्रम की आठवीं तारीख़ है, कल से मुसलमानों ने अपने नबी के निवासे और उनकी ख़ानदान पर पानी बंद कर दिया था। आज ख़ैमों में पानी ख़त्म हो चूका था, बच्चे प्यास से तड़प रहे थे, मगर मुस्लमान खुश थे कि हम ने नबी के बच्चों को सताने में कपि कसर नहीं छोड़ी, थोड़ा सोचिये इराक़ के उस तपते रेगिस्तान में टतीन दिनों की प्यास में छोटे छोटे बच्चों का क्या हाल हुआ होगा, पर वह अल्लाह का काम कर रहे थे इसी लिए छः माह के बच्चे को जब प्यास की हालत में तीर लगा तो वह मुस्कुरा कर दुनिया से चला गया, अली असग़र का यह मुस्कुराना उस दौर के मुसलमानों के गाल पर तमाचा था, आज तक मुस्लमान उस दाग़ को दामन से नहीं छुड़ा पाया, ज़ालिम कभी भी इज़्ज़त नहीं पा सकता, वह हर दौर में ज़लील ही रहता है।

मेहदी अब्बास रिज़वी