लखनऊ से तौसीफ़ क़ुरैशी

राज्य मुख्यालय लखनऊ।बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर दोनों पक्षों की मुक़दमे बाज़ी 1950 से शुरू हुई थी जो अब निपटने की और दिखाई दे रही है इस दौरान बहुत कुछ बदलाव देखने को मिले तमाम चेहरे बदले सियासत के रंग बदले नेताओं के सुर बदले और ख़ेमे बदले सियासी सरोकार बदल गए।अयोध्या भी बदली और वहाँ के लोग भी बदले लोगों की सोच भी बदली।कुछ ने दुनियाँ से रूखसत ले ली तो कुछ को सियासत ने पीछे धकेल दिया।अपने तीखेपन की पहचान बना चुके कुछ नेताओं की उम्र हावी हो गई और उनकी गरजने वाली बोली ने धीमी गति पकड़ ली।एल के आडवाणी और कल्याण सिंह जैसे नेता जो दूसरों को सहारा देते थे आज खुद ही सहारे के मोहताज हो गए।विनय कटियार जिन्हें उस वक़्त फ़ायर ब्रांड का नाम दिया जाता था आज कहीं गुमनामी में खो गए हैं या यूँ कहें कि उन्हें फ़िल्म से ही पीछे कर दिया गया है।हासिम अन्सारी शहीद की गई बाबरी मस्जिद को फिर से तामीर करने की चाहत लिए दुनियाँ से रूखसत हो गए ऐसे ही महंत रामचंद्र परमहंस मंदिर निर्माण का सपना लिए दुनियाँ से चले गए वहीं इस मुद्दे को सियासी बनाने वाले विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल भी दुनियाँ छोड़ गए जिन्होंने इस मुद्दे पर लोगों की भावनाओं को उकेरा और चन्दा भी खूब बटोरा जिसका हिसाब किताब किसी को नहीं मिल सका है मन्दिर आन्दोलन में अपनी भागीदारी के लिए जाने जाने वाले देवराहा बाबा और विजयाराजे सिंधिया जैसे भी दुनियाँ में नहीं रहे।इस मुद्दे को पर्दे के पीछे से हवा देने वाले नानाजी देशमुख भी राममंदिर में बिना पूजा करें ही हमेशा के लिए सो गए।दुनियाँ भर में बाबरी मस्जिद की आवाज़ बनकर उभरे अपनी आक्रामक शैली में क़ानूनी और तकनीकी पक्ष रखने वाले सैयद शहाबुद्दीन भी 2017 में अल्लाह को प्यारे हो गए।प्रवीण तोगडिया भी विहिप से बाहर कर दिए गए।6 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में भीड़तंत्र को हथियार बना हिन्दुस्तान के सर को हमेशा के लिए दुनियाँ के सामने झुकाने वाले काम को अंजाम दिया जा रहा था यानी बाबरी मस्जिद को शहीद किया या यूँ कहें कि कराया जा रहा था तो ग़लत नहीं होगा।जो लोग वहाँ मौजूद थे उनका ऐसा ब्रेनवाश किया हुआ था मानो आज ही सबकुछ होगा जबकि ऐसा कुछ नहीं था एक षड्यंत्र के तहत वहाँ सब कुछ हुआ उसमें बहुत नेता पर्दे के पीछे से काम कर रहे थे साथ ही केंद्र की कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और गृह मंत्री एस बी चौहान भी सहयोग कर रहे थे ये बात अलग है कि उनकी मनसा क्या थी इस पर फिर चर्चा करेंगे।जिस वक़्त सिर फिरे लोग बाबरी मस्जिद के गुम्बदों की बेहुरमती कर रहे थे यानी उन्हें शहीद कर कर रहे थे तो वहाँ पर इस पूरे मामले को कवरेज करने गए देश विदेश के पत्रकारों को भी बख्शा नहीं गया था उनके साथ भी मारपीट की गई थी क्योंकि उस समय वहीं वहाँ के रखवाले बन गए थे।ख़ैर अब विवाद अपने अंतिम पड़ाव पर है दुनियाँ की नज़रें टिकी है सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर कि क्या फ़ैसला आएगा आस्थाओं पर आएगा या क़ानून के आधार पर यही बात देखने की होगी आस्थाओं पर दिया गया फ़ैसला मान्य नहीं होगा क़ानून पर दिया जाने वाला फ़ैसला मान्य होगा ये बात अलग है कि मुल्क को हिन्दू मुसलमान में बाँटकर राज करने वाले विरोध करेंगे लेकिन दुनियाँ में फ़ैसले की क़द्र की जाएगी बल्कि सदियाँ मिसाल देगी कि देखो ये है क़ानून का राज आस्थाएँ कोई मायने नहीं रखती क़ानून तो क़ानून होता है उसमें आस्थाएँ आड़े नहीं आती है।