नई दिल्ली: भारत में गाय को 'मां' का दर्जा मिला हुआ है। यहां गाय की पूजा की जाती है। गाय के उत्पादों के बारे में यह कहा जाता है कि इनके अनगिनत स्वास्थ्य फायदे होते हैं। इतना ही नहीं, गोमूत्र यानी गाय के पेशाब और गाय के गोबर के भी कई लाभ गिनाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि गाय का पेशाब कैंसर जैसे जानलेवा बीमारी को ठीक करने में मदद करता है।

कुछ लोग यह भी बताते हैं कि गाय का दूध में पीलापन इसलिए होता है क्योंकि उसमें सोना मिला होता है। हैरानी की बात यह है कि कुछ लोग गाय के उत्पादों को इतना प्रभावी बताते हैं कि इससे चीन के घातक कोरोना वायरस के लिए इलाज हो सकता है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई गाय के पेशाब या उत्पादों से इतने स्वास्थ्य लाभ होते हैं? आपको बता दें कि इन बातों पर विश्वास करने के लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।

sciencemag.org की रिपोर्ट के अनुसार, भारत सरकार ने 17 फरवरी को गाय के गोबर, मूत्र, दूध और अन्य सभी उप-उत्पादों से होने वाले लाभों पर एक अध्ययन करने की पहल की। भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) ने साइंटिफिक यूटिलाइजेशन थ्रू रिसर्च ऑग्मेंटेशन-प्राइम प्रोडक्ट्स फ्रॉम इंडिजेनस काऊ (SUTRA PIC) का आयोजन किया गया।

इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य गाय के पेशाब, और अन्य उप-उत्पादों के औषधीय, पोषण और कृषि लाभ के बारे में जानकारी इकट्ठा करना था। जाहिर है गाय के मल-मूत्र और दूध से टूथपेस्ट, मच्छर से बचाने वाली क्रीम और दूध, मक्खन और घी जैसे कई खाद्य पदार्थ बनाए जाते हैं और ऐसा माना जाता है कि इससे कैंसर सहित कई बीमारियों का इलाज कर सकते हैं।

हालांकि शोधकर्ताओं ने इन बातों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। उन्होंने सरकार को साफ शब्दों में कहा है कि गाये के पेशाब से किसी तरह का कोई स्वास्थ्य लाभ नहीं होता है।

कमाल की बात यह है कि इस शोध को आगे बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक बहुत उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि उनका मानना है कि गाय उत्पादों का गुणगान वैज्ञानिक उपलब्धियों की विश्वसनीयता को कमजोर करेगा, खासकर तब जब कैंसर, डायबिटीज और ब्लड प्रेशर के क्षेत्र में बहुत सारे शोध किए गए हैं।

भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान के सदस्य अयान बनर्जी ने एक साक्षात्कार में टेलीग्राफ को बताया, 'यदि यह एक ओपन एंडेड रिसर्च प्रोग्राम है, तो केवल गायों पर ध्यान क्यों दिया जाता है? इस आयोजन में ऊदबिलाव, ऊंट या बकरियां और अन्य जड़ी-बूटियों के उत्पादों को क्यों शामिल नहीं किया गया है।

इस अध्ययन में 500 से अधिक वैज्ञानिक शामिल हुए थे। उन्होंने भारत सरकार की इस पहल को मजाक बताया है साथ ही उन्होंने भारत सरकार से इस आह्वान को वापस लेने को कहा है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तथ्य 'अवैज्ञानिक' है। ऐसे समय में सार्वजनिक धन का गलत उपयोग है, जब भारत में अनुसंधान पहले से ही वित्तीय संकट का सामना कर रहा है।